Thursday, June 30, 2011

हां मेरी संगिनी


पटरी पर
जब तक दौड़ती है रेल
बनी रहती है धड़कन 
जिंदगी की   
हां मेरी संगिनी
होकर तुम्हारे साथ
होता है यह एहसास 
कि पटरी के बिना रेल
और मैदान से बाहर
खेल का जारी रहना
यकीन नहीं
बस है एक मुगालता 
सुब कुछ ठीक होने का
अपनी ही लानत पर
निर्भीक होने का 

Friday, June 24, 2011

महात्मा फिर एक बार


स्टेशन वहीं का वही
एक आगे न एक पीछे
बदली पटरी न बदला समय
लाल हरी झंडियों की कवायद उतनी ही
अलबत्ता संतानें जरूर
इस बीच बन गई हैं पीढ़ियां
एक के बाद एक 
एक के पीछे अनेक

बस नहीं बनती अब
पहले की तरह बूटें 
बूटों के मुताबिक पांव 
बूट बनते पांव
सिरचढ़े हैटों की अकड़ उतनी ही 

रंग-बिरंगे मुखौटों का अट्टाहास
गूंज रहा है मैलोड्रामा के बीच
नस्ल की रोशनाई 
गुस्ताख को फौलाद कहने वाली
सोच की शमशीर
कहीं भी लिख देती है
लाल लथपथ गाथा
पर अजन्मी रह जाती है हर बार
आखिरी आदमी की पहली पुकार
महात्मा फिर एक बार

Wednesday, June 22, 2011

पटना


गंगा के किनारे-किनारे
कभी आएं पूरब से पश्चिम की तरफ
तो पटना पहले अजीमाबाद लगेगा
मजारो मस्जिद इकहरे-दुबले
शतरंजी बिसात की मानिंद दुधिया कंगूरे
बीच-बीच में कुछ पुराने
कुछ हाल के गड़े त्रिशूल
जिनके गर्दन की फांस जब-तब केसरिया रंग से धुलकर
हो जाती हैं फिर फीकी पहले जैसी
ये सब कितना रखती हैं माद्दा
यहां के जीवन को शोरगुल से भर देने का
नहीं मालूम
पर इनके होने के गुमान में दर्जनों बैंड के दस्ते
अपना साइनबोर्ड चौड़ा करने का अभिक्रम
रचते हैं यहां रोज-बरोज

आगे खबरनुमा जिक्र का मोहताज खुदाबख्श की लाइब्रेरी
पटना विश्वविद्यालय
पटना का पुराना अस्पताल
ये सब नाम हैं उन बंद गुफाओं के
जो अब सिर्फ तारीख के सैलानियों के लिए खुलते हैं
आम शहरी को तो है पसंद इन गुफाओं से चोरी गई
मूर्तियों की भोंडी नकल ही
कबाड़ी बाजार की तरह बिकती हैं जो खुलेआम
गंगा के कछार अशोक राजपथ पर
पटना के अल्पसंख्यक रेखाओं की गिनती भी
इस सफर की दरकार है
इसाई चर्च-स्कूलों चीनी हकीमों
ठठेरों-सोनारों के टूटे-बिखरे घर-घराने
अब यहां की मिट्टी से चीख-चीखकर बताती हैं
अपनी युगीन रिश्तेदारी
पटना की चर्चा में घरानेदारी के इन दावों का भी
गुजरना पड़ रहा है डोप टेस्ट से

आगे दूर से ही जाहिर होने वाली
पटना की सबसे खुली उपस्थिति का अहसास
गांधी मैदान
जहां गांधी ने स्वयं की थी प्रार्थना इस शहर के नागरिकों के साथ
जन-जीवन की हरियाली के लिए
मानवता की पांचाली के लिए
यहां अब सेक्स के अंडे
पहलवानी साफे और  झंडे बिकते हैं
सिनेमाई चौकीदारी में गांधी का पाषाण शव
और गोलघर पर बैठा गिद्ध करता है आगाह
गांधी मैदान को भूलने के खतरे से
सामाजिक न्याय के उलटी जनेऊ को धारण किए पुरोहित
यहां आते हैं साल में कई बार
कुछ गुमनामों के जन्मोत्सव
लाखों अनामों के सार्वजनिक पिंडदान के लिए

इस अपूर्ण यात्रा की यह भी एक संपूर्णता है
कि पहले पत्थर में भगवान के सबूत
आखिर में काठ की चिता जलती है
गंगा की सनातन गति कविता से बाहर
खुली बहस की मांग करती है
वह इस शहर के लिए
चिता से जीवन की तरफ क्यों बहती है

Sunday, June 19, 2011

स्खलन


मैं अपने घर में दोपहर की सबसे खड़ी सूई के साथ
बैठा हूं खाली कि कुछ सूझता है
कविता की टोपी पहन होता हूं अंतर्ध्यान
फिर क्या आंखें मनाने लगती हैं जीवंत मृत्यु का उत्सव
और जिह्वा बगैर मुंह खोले करने लगती है
साहित्यिक व्यभिचार

तभी गिरते हैं कुछ परदे करीने से
मानस प्रेक्षागृह में पधारे दस प्रबुद्ध दर्शकों के बीच
पहला रंग है सफेद
दूसरे में यही सफेदी पीले बार्डर के साथ
तीसरा-चौथा-पांचवा नये रंग हैं
छठा रंग है नायपॉल की टाई का
सातवां जिसमें जिंदगी का कुंवारापन दिखता है सजिल्द
आठवां पिछली कार्यशाला में झमाझम बाबू के व्याख्यान का
नौवां रंग हिंदी पत्रिकाओं की धूसरता से करता है मैच

नये परदों का रंग अभी पहचानें और
इस पहले ही स्खलित हो जाता है वह
जिसकी गरमी इस नाट¬ विधा में एकाग्रता का काम करती है
जिसका स्खलन नये सृजन को अंजाम देता है

Thursday, June 16, 2011

बताओ न लता मंगेशकर


कितनी मीठी हो लता मंगेशकर तुम
चासनी के तार की तरह बिन टूटे लगातार
कब से गूंज रही हो तुम रेडियो-टीवी-पंडालों में
भोर-भोर तक रात-रात तक

परदे की सबसे कुलीन बालाओं के गूथे हैं केश तुमने 
बनाया है उबटन
पहनायी है पोशाकें परीजादियों को
सोलह-सोलह दासियों के साथ
शरारती तितलियों की कई-कई पीढ़ियों ने
खोले हैं पर तुम्हारे इशारों पर
बजती मुस्कानों के न जाने कितने सुलेख हैं तुम्हारे नाम

पर ऐसा क्यों है लता मंगेशकर
कि नहीं गा सकते वे बच्चे तुम्हें
जो चीखते हैं डरते हैं बिल्लियों से देर-देर रात
टीवी देखने के बाद
नहीं चढ़ सकते गीत तुम्हारे उन पहाड़ों पर
जिसे चढ़ता है भारत का सबसे बूढ़ा बचपन
लादे पीठ पर अपने समय का सबसे फासिस्ट बयान

छत पर टहलती रागिनी चांदनी को चखता संगीत
क्या कुछ नहीं झरता है तुमसे
संवेदना की आंखों से कढ़ा सबसे रेशमी रुदन
अनमोल गीत-भजन
झुनझुना बजाती लोड़ियां

पर स्वर कोकिले
कभी क्यों नहीं गाया गीत तुमने
उन कस्बों-गांवों के लिए
जहां बची है अब सिर्फ चिलचिलाती धूप
चर्र-चर्र करती बूढ़ी टूटी खाट
उन पनिहारिनों के लिए
जिनके मटके  फोड़ दिए हैं
बोतलबंद शरबत के ठेकेदारों ने
उन लकड़ियों के लिए
जिनसे खुरच लिए गए हैं जंगली गंध
काई-कजरी-झिंगुर की आवाज
समुद्र लांघते बगुलों के घर

बताओ न लता मंगेशकर
क्यों अजन्मे रहे वे गीत अब तक
जिससे न लगे ग्रहण न करना पड़े कुंभ स्नान
आखिर क्यों नहीं भरा आलाप तुमने
युगों से लगती डुबकियों के खिलाफ

और हां स्वर सम्राज्ञी
तुम्हारा विजिटिंग कार्ड सबके पास है
सबको तुम्हारे गाने की प्रीमियम फीस का पता है
पर तुम्हें नहीं पता शायद कि माटी ढहती भीतों पर
अब भी बैठे हैं सुग्गे
लिखा है कोहबर
गाती हैं महिलाएं रेघाते हुए एक साथ
पहुंचती है पोर-पोर तक बेटी बेचवा की टीस
यहां सबसे गैरजरूरी है यह सामान्य ज्ञान
भारत की सबसे सुरीली बेटी का नाम

Wednesday, June 15, 2011

रोकिये नहीं सर


रोकिये नहीं सर
अभी लिखना है और  भी बहुत कुछ
इजाजत नहीं तो वहां
क्लास के बाहर बैठकर लिख लूंगा
आपकी छड़ी टिक-टिक घड़ी
दोनों की कद्रदानी सौभाग्य है मेरा
सौभाग्य यह आज भी 
दुविधाग्रस्त नहीं सुरक्षित है सर
बहुत सिखाया है इसने
बहुत असर है इनका मेरे ऊपर

लेकिन लिखूंगा
आज तो जरूर लिखूंगा सर
ऐसे कई शब्द अधूरे-पूरे वाक्य
जिनके हिज्जे पूरा का पूरा गठन
दुरुस्त नहीं बसे होंगे मौलिक
ये भी बड़ी बात है सर
बताया था आपने ही पढ़ाते हुए कबीर
इन्हें बस मैं ही लिख सकता हूं
सिर्फ मेरी स्याही ही उगा सकती हैं इन्हें

ये मेरे शब्द हैं सर
सिर्फ मेरी कॉपी पर ही हो सकते हैं
इनके होने की दरकार
एक अधूरे व्यक्ति की
पूरे व्यक्तित्व की चाहना है
बहुत जरूरी है इनका चहकना
बहुत जरूरी है सर
मेरी कॉपी को मेरा साबित होना
भरोसा है यह मौका आप देंगे
मेरी कॉपी आप नहीं लेंगे सर

Monday, June 13, 2011

वह कविता के पास आएगी


मेरी कविता के पास खड़ी वह लड़की
मेरी कविता से मेरे अनजाने क्या बतियाती है
कुछ गुलबूटे उसके सिलबटी आंचल के
खिलखिलाने लगे हैं मेरी कविता की शाखों पर
कई साल बाद लिख रहा हूं फिर एक कविता
वह उसी तरह आकर खड़ी है
थोड़ी थकी उदास मेरी कविता के पास

उसके होने का दखल मेरी कविता में कब-कहां बदलता है
यह मैं ही सोच रहा हूं कि कोई सोचने को कहता है
उसी की कामना लिखूं अपने अजन्मे शब्दों से
सोच के साथ शुरू होता है एक अंदरूनी समारोह
लेखनी की हरकत छवि का आरंभ
वेग-आवेश-सुरंग झील-समुद्र-आकाश
दौड़ती हुई धूप छिपती हुई छांह
पसीजता पसीना रेत की छाती से
दौड़ पड़ा मेमना अपनी ही हांक पर
हांफती हुई दहलीज उतरी हुई कमीज
अविराम यात्रा में सानंद कि हिचकी
पहले अर्धविराम फिर पूर्ण विराम

नहीं
मेरी इच्छा का मैल वह चाहकर भी नहीं धो पाएगी
वह ऐसे ही मेरी कविता के पास आएगी
बतियाएगी
मैं नहीं उतरूंगा अपनी कविता के जीने से
संबंधों का रिबन लेकर
ये गरिमा उजास पूर्णिमा
मैं नहीं लिख पाऊंगा
वह वहीं खह़ी होकर मेरी कविता से बड़ी हो जाएगी
मैं कविता लिखूंगा
वह कविता के पास आएगी