Thursday, July 7, 2011

परपुरुष


कल जब तुम्हारी शर्ट की कालर पर
जमी देखी कीचट मैल तो मिचलाने लगा मन
लड़खड़ाते देखा किसी अव्वल बेवरे की तरह
तो घबड़ाने लगा मन
प्रेम मैं करती थी तुम्हीं से
किया था खुद से ही वरण तुम्हारा
पर फैसला यह शरमाने लगा
तुम्हारे नाम का पल्लू ओढ़ूं आजीवन
जीवन ऐसा गंवारा नहीं लगा
मेरी कोख से होगा पुनर्जन्म तुम्हारा
सोचकर दरकने लगी मेरे अस्तित्व की धरती
भर-भराकर कर गिरने लगा
सिंदूरी सपनों का आसमान

तुम्हारी गोद में ही ली मैंने
किसी परपुरुष के सपने का सुख पहला
देहगंध का संसर्ग बदलने की हिमाकत
विद्रोह की तरह था मेरे लिए
तुम्हारे साथ रखकर ही शुरू कर दी मैंने
किसी और के होने की प्रार्थना
मांगने लगी मनौती छुटकारे की
देह का धधकता दाह
जला दे रही था वह सब
जो तुम्हारे नाम से दौड़ा था कभी नसों में मेरी

बचाने की कोशिश तो की भरसक तुमने
संबंध की अनजाने ही ढीली पड़ती गांठ को
पर जतन के हर पासे को पलटता देख
खोने लगे संतुलन
पटकने लगे थाली
बरबराने लगे गाली
जिन बालों पर फेरकर हाथ तुमने दिया था कभी
अनंत प्यार का भरोसा
वह मेरी मुंहजोर बेवफाई का
बना पहला शिकार
नोचे बेरहमी से तुमने बाल मेरे
कभी पागल कर देने वाली गोलाई पर
टूटा तुम्हारे हाथ से रेत की तरह सरकते जाते
प्यार का भिंचभिंचाता गुस्सा

इस झंझावात का सामना करना
भले दुश्वार था मेरे लिए
बिलख उठती थी मैं
तुमसे बार-बार दागे जाने के बाद
पर यही तो था वह जंगल
जिसे चाहती थी मैं पहले उगाना
और बाद में खुद उसमें फंसना
फिर कर लेना चाहती थी इसे जैसे-तैसे पार

तुम नहीं मेरे प्यार
कर नहीं सकते तुम मुझे प्यार
इस सच को सधा होना ही नहीं
अंतिम होना भी जरूरी था
प्यार के रेशमी रिश्ते के टूटने का
लौह तर्क आखिरकार जीत गया
देखते-देखते ही देखते
तुम और तुम्हारा साथ बीत गया
और इस तरह एक दिन फूंक दिया मैंने
तुमसे मुक्ति का महामंत्र

तुम्हारे साथ होने की ठिठुरन
जिस रजाई को ओढ़कर करती रही दूर
जिसके सपनों के तकिए पर काढ़ती रही
सपनों के फूल
तुम्हें खोने का सुख
जिसके पास होकर देता रहा
गहरी लंबी सांस जैसा सुकून
प्यार वह सहारा जैसा था
सहारा वह भूख जैसी थी
भूख वह देह जैसी थी
और देह वह जलाता रहा
मेरी बिंदास चेतना का अलख
भरमाई आंखों से पूजती रही मैं
दीर्घ और विद्रोही इच्छाओं का महाकलश

No comments:

Post a Comment