नल की चाबी
कुछ नहीं करती इशारा
आदत हो गयी है उसे
अब बेइशारा
बगैर शोरगुल के रहने की
फिर टपकती रहे बूंद
या बहती रहे मोटी धार
फर्क तो उसे तब भी न पड़े शायद
जब नदारद दिखे वह
बिगड़ जाये
या बेच दे कोई कबाड़ में
कलपुर्जे ऐसे कितने ही हैं आज
हमारे आसपास
जिनके इशारे कभी
गांधीजी की लाठी से भी तेज चलते थे
जिनके इशारे
किताबों के सौ-हजार पन्नों को
कभी भी फड़फड़ा देने को
रहते थे तत्पर
चाबी आंदोलन के
कितने निकम्मे हो गये हैं
हमारे समय के
सारगर्भित रचना , बहुत कुछ कह गयी ................
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