Sunday, June 19, 2011

स्खलन


मैं अपने घर में दोपहर की सबसे खड़ी सूई के साथ
बैठा हूं खाली कि कुछ सूझता है
कविता की टोपी पहन होता हूं अंतर्ध्यान
फिर क्या आंखें मनाने लगती हैं जीवंत मृत्यु का उत्सव
और जिह्वा बगैर मुंह खोले करने लगती है
साहित्यिक व्यभिचार

तभी गिरते हैं कुछ परदे करीने से
मानस प्रेक्षागृह में पधारे दस प्रबुद्ध दर्शकों के बीच
पहला रंग है सफेद
दूसरे में यही सफेदी पीले बार्डर के साथ
तीसरा-चौथा-पांचवा नये रंग हैं
छठा रंग है नायपॉल की टाई का
सातवां जिसमें जिंदगी का कुंवारापन दिखता है सजिल्द
आठवां पिछली कार्यशाला में झमाझम बाबू के व्याख्यान का
नौवां रंग हिंदी पत्रिकाओं की धूसरता से करता है मैच

नये परदों का रंग अभी पहचानें और
इस पहले ही स्खलित हो जाता है वह
जिसकी गरमी इस नाट¬ विधा में एकाग्रता का काम करती है
जिसका स्खलन नये सृजन को अंजाम देता है

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