Friday, June 24, 2011

महात्मा फिर एक बार


स्टेशन वहीं का वही
एक आगे न एक पीछे
बदली पटरी न बदला समय
लाल हरी झंडियों की कवायद उतनी ही
अलबत्ता संतानें जरूर
इस बीच बन गई हैं पीढ़ियां
एक के बाद एक 
एक के पीछे अनेक

बस नहीं बनती अब
पहले की तरह बूटें 
बूटों के मुताबिक पांव 
बूट बनते पांव
सिरचढ़े हैटों की अकड़ उतनी ही 

रंग-बिरंगे मुखौटों का अट्टाहास
गूंज रहा है मैलोड्रामा के बीच
नस्ल की रोशनाई 
गुस्ताख को फौलाद कहने वाली
सोच की शमशीर
कहीं भी लिख देती है
लाल लथपथ गाथा
पर अजन्मी रह जाती है हर बार
आखिरी आदमी की पहली पुकार
महात्मा फिर एक बार

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