Sunday, September 25, 2011

बस अड्डे पर लावारिस मुस्कान


बुझी नहीं है  आग न झुका है  आसमान
तमगे हम लाख पहनें
या कि  पा लें पेशेवर रहमदिली का
सबसे बड़ा इनाम

पत्थर में धड़कन की तरह
सख्त सन्नाटे को दरकाती  आवाज
समय ने भी कर दिया इनकार
जिस सुनने से
कविता की ये पंक्तियां चुराई हैं मैंने भी
खासी बेशर्मी से
उस बच्चे की बेपरवाह आँखों से

सोचता हूं  अब भी
गूंज नहीं रहा होगा क्या
युद्घ का वह  अंतिम बिगुल 
इतिहास की बेमतलब जारी
बांझ-लहूलुहान थकान के खिलाफ
वह  अंतिम तीर वह  अंतिम तान
बस  अड्डे पर मिली
लावारिस मुस्कान
पांच रुपये में  आठ समान
पांच रुपये में  आठ समान

3 comments:

  1. शब्द-शब्द संवेदना भरा है...

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  2. वाह भावपूर्ण अभिवयक्ति...
    समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है। आपको और आपके सम्पूर्ण परिवार को हम सब कि और से नवरात्र कि हार्दिक शुभकामनायें...
    .http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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