Thursday, September 27, 2018

चेहरा




मैं तुम्हारे चेहरे पर हंस सकता हूं
मैं तुमसे पूछ सकता हूं
कि कोयले के खदान में क्या
कम पर गया था चट्टान
मैं कह सकता हूं कि तुम स्थगित कर दो
अपने चेहरे को अपने अस्तित्वबोध से

मैं तुम्हारे सामने नहीं खोल सकता
अपने महंगे कैमरे का लेंस
सौंदर्य को नरम के साथ
पोर्न मैगजीन को अपने बदन पर अोढ़ने वाले
कागज की तरह होना चाहिए मांसल
इश्तेहारों के दौर में
यह बयान सुलेख की तरह कंठस्थ है मुझे

मैं तुम्हारे चेहरे पर मलना चाहता हूं अवलेह
जिसे श्रम की भट्टियों की
महंगी राख से बनाया गया है
मैं बदल देना चाहता हूं तुम्हारा चेहरा
जैसे बाजार में बार्बीज
बदलती रहती है अपना लुक

मैं तुम्हारे चेहरे पर कविता लिखना चाहता हूं
पर कोई भी शब्द साथ देने को नहीं तैयार
संवेदना की विनम्र कोशिश
कैसे हाथ मलते रह जाती है
यह विवशता असहनीय है मेरे लिए
मैं इस असहनीयता से दूर निकलना चाहता हूं
रिहाई चाहता हूं मैं तुम्हारे चेहरे की बजती जंजीरों से 

तुम्हें लिखने की कोशिश में
कसीदे काढ़ने लग जाता हूं मैं
उन संगमरमरी पत्थरों के बने बूतों के
जिन्हें इतिहास के सबसे क्रूर राजाओं ने
नींद की गोली की तरह इस्तेमाल की गईं
लौंडियों के नाम पर बनवाए हैं

मैं तुम्हारे चेहरे को इस सदी से बाहर
पांच हजार साल की स्मृति से बाहर
फेंक देना चाहता हूं
नहीं है एेसे चेहरे की अब कोई गुंजाइश
बीत चुका है एेसे चेहरों का दौर
सरकार से लेकर संवाद और संवेदना
सबके डिजिटल हो जाने के बाद

चेहरे मतलब रंग होता है
चेहरा रौनक की बड़ी बहन है
काला या सांवला कोई रंग नहीं
अभिशाप है अभिशाप
चॉकलेट के रैपर से लेकर
भगवान की किताब तक
आज सब रंगीन हैं
सबके आवरण पर है
रौशनी का महोत्सव

मैं तुम्हें चेहरा कहना भी नहीं चाहता
तुम चेहरा हो भी नहीं सकती
तुम तो छाया हो बस
एक एेसी छाया
जो कभी मेरे सिर के ऊपर से
तो कभी पांव के बीच से गुजरी है
एक एेसी छाया
जो मन के धूप को रोक लेती है
खुद को और जलाने के लिए

तुम्हारे चेहरे पर मेरी आंखें मेरे सपने
दोनों मिलकर रोज गाते हैं शोकगीत
एक एेसा शोकगीत
जो चेहरे को सौंदर्य
और सौंदर्य को मांसल खरोंच से भर देने की यातना पर
अभिभूत न होने के दुख से जन्मा है

तुम्हारे चेहरे के कारण
आईनों ने झूठ बोलना सीख लिया है
इन आईनों ने ही तो सबक रटाया है औरत जात को
कि वह चेहरे को सिंदूर की सीध में नहीं
किसी पुरुष की रीढ़ में देखे
कि चेहरा सौंदर्य की डाल पर खिलने के लिए
नाखूनों में भरने के लिए होता है
संस्कृति और विकास का तेजाब मलने के लिए होता है

#रोप्रे
27.09.18


3 comments:

  1. मन को झकझोर कर एक अजीब-सा बोध कराने वाली रचना. गहन विश्लेषण. उत्कृष्ट सृजन के लिए हार्दिक बधाई.

    ReplyDelete