Wednesday, July 27, 2011

अबीर हुई लड़की


(1)
प्यार
प्यार का पुनर्पाठ
अभिनय की तरह कई बार के रिटेक में
फाइनल शॉट का अभ्यास
एक जनतांतित्रक मसला तो है
पर संवैधानिक नहीं
सवाल उगाती समझदारी है यह
उस अधीर लड़की की
जो भूल से प्यार भले न सही
पर प्यार में चूक जरूर कबूलती है
प्यार का मर्म कोमल धर्म
उसे रह-रहकर कचोटता है
अपने ही किए को
कसौटी बनाने के जोखिम से

(2)
पिछले दरवाजे से स्वाधीन हुआ प्रेम
सामने के दरवाजे पर खड़ा
बड़ा सवाल है
वह लड़की आज भी अधीर है
बाल को संवारने जैसा
जिंदगी की संभाल के लिए

(3)
प्यार को रोक नहीं पाना
एहसास की सिहरन जागते ही
तकिया-रजाई हो जाना
महज समय के दोशाले में लिपटी
खरगोशी गरमाहट नहीं
समय के सबसे तेज साफ्टवेयर पर
डाउनलोड किया गया एप्लीकेशन भी है

(4)
...तो क्या एक अधीर लड़का ही
आखिरकार गढ़ता है
एक अधीर लड़की का प्रेम
उसका मन
उसका मिजाज
उसका पूर्व उसका आज
बहस हंसकर करें या डूबकर
गर्दन की नाप तो लेनी होगी
उन छोकरों की ही
जिनके माइक्रोसॉफ्टी दिमाग के
खुले विंडो पर
बालिगाना खेल के लिए
तैयार हैं कई गेमप्लान
समय से ऊंची मचान
तीखे तीर शातिर कमान

(5)
अबला को
बला की संभावनाओं से भर देना
आजादी के नाम पर की गई
मालफंक्शनिंग नहीं तो और क्या है

(6)
लैंगिक समता के अलंबरदारों बताओ
एक लड़की का बेडरूम की तरह इस्तेमाल
उसे जिस हाल तक देता है पहुंचा 
वहां कितना बचता ही है दमखम
एक अधीर हुई
अबीर हुई लड़की के पास
कि वह फिर से करे प्यार
अपने किए-कराए पर पुनर्विचार
या कि आंखों को काजल कर देने वाले
आंसुओं पर एतबार

Friday, July 22, 2011

मर्दाना तर्क जनाना हाथों में

(1)
याद आता है
अभिनेता महान का हिट संवाद
मर्द को दर्द नहीं होता जनाब
गूंजती है आवाज
सनसनाहट से भरी एमएमएस क्लिप में
बांग्ला की कुलीन अभिनय परंपरा की बेटी की
आई वांट ए परफेक्ट गाइ  
और फिर उतरने लगते हैं पर्दे पर
एक के बाद एक दृश्य
शालिनी ने लकवाग्रस्त पति को
दिया त्याग रातोंरात
अधेड़ मंत्री के यहां पड़े छापे में मिली
पौरुष शास्त्र की मोटी किताब
वियाग्रे की गोलियां
मुस्टंड मर्दानगी के लिए ख्यात
हकीम लुकमान के लिखे अचूक नुस्खे
मिस वाडिया ने अपनी आत्मकथा में
उड़ाया इंच दर इंच मजाक
अपने सहकर्मी की गोपनीय अंगुली का

(2)
नामर्दों के लिए कोई जगह नहीं
उन्हें नहीं मिलेगी तोशक न मिलेगी रजाई
न वे झूल सकेंगे झूला न बना सकेंगे रंगोली
और न खेल सकेंगे होली
अवैध मोहल्लों के किसी गली-कूचे या मैदान में
 ऊंची एड़ी पर खड़ी दुनिया
 नहीं देखना चाहती किसी नामर्द की शक्ल
अपनी किसी संतान में

(3)
मर्द न होना किसी मर्द के लिए 
बिल्कुल वैसा ही नहीं है
जैसा किसी औरत का न होना औरत
स्त्री-पुरुष का लिंग भेद मेडिकल रिपोर्ट नहीं
बीसमबीस क्रिकेट का स्कोर बोर्ड
करता है जाहिर
पुरुष इस खेल को सबसे तेज और
जोरदार खेलकर ही साबित हो सकते हैं जवां मर्द
और तभी मछली की तरह उतरेगी
उसके कमरे में कैद तलाब में कोई औरत

(4)
मर्दाना पगड़ी की कलगी खिलती रहे
अब ये चाहत नहीं चुनौती है पुरुषों के आगे
उसे हर समय दिखना होगा
सख्त और मुस्तैद
नहीं तो सुनना पड़ सकता है ताना
वंशी बजाते हुए नाभी में उतर जाने वाले कन्हाई
कहीं पीछे छूट गए
औरतों ने देना शुरू कर दिया है
पुरुष को पौरुष से भरपूर होने की सजा
जिस औजार से गढ़ी जाती थीं  
अब तक मन माफिक मूर्तियां
अब उनका इस्तेमाल मिस्त्री नहीं
बल्कि करने लगे हैं बुत
मैदान वही
बस  योद्धाओं के बदल गए हैं पाले
मर्दाना तर्क जनाना हाथों में
ज्यादा कारगर और उत्तेजक रणनीति है
जैसे को तैसा...
जनाना न्याय का उध्बोधन गीत है

Sunday, July 17, 2011

छोकरा पूरबिया


बड़े से बड़े ताले में भी होती है
करतबी गुंजाइश चाबी के लिए
छब्बीस साल का वह छोकरा
शहर की बंद गलियों से बचा लाता है
हर बार
समझ की यह आखिरी कोर

नोएडा मोड़ पर भुट्टा  सेंकती
जानकी के धारीदार चेहरे पर
बची है जितनी स्पेस
आखिरी हिसाब किताब के लिए
छोकरे के वैलेट में रखे हैं उतने ही साल
प्यार और नौकरी के लिए
विश्व बैंक की सालाना रपट में भारत को
छालीदार छोकरों का कटोरा कहा गया है
छोकरे जेपी के गले गुर्दे नहीं
न बिग बी की दाढ़ी से शुरू खुजली हैं
घोड़ा है छोकरे का समय
नाल ठुकाए टांगों पर हिन-हिना रहा है
एक पूरी पीढ़ी का जुनून
छोकरा गंगा किनारे वाला

छोकरा पूरबिया हिज्जे के प्रामाणिक भाषा संस्कार का
चिट्ठी में बार-बार पूछता-बताता है अनपढ़ मां को
चुनाव और चुनौती लकड़ी और कुल्हाड़ी के बीच
मां हारता नहीं जीवन
न हारता है वह तकाजा
जिसने एक बेटे को परदेसी बसंत से
फोकट्यून चुराना सिखाया

Thursday, July 14, 2011

गुलदस्तों का भार उठाना


अलंकरण समारोहों में
गुलदस्तों का भार उठाना
कितनी बड़ी कृतज्ञता है
विनम्रता है कितनी बड़ी
अपने समय के प्रति

हमारे समय के सुलेखों
पुस्तकालय के ताखों पर रखे
अग्रलेखों ने
लेख से ज्यादा बदली है लिखावट
उतनी ही जितनी
उनकी बातें सुनकर
महसूस होता है
श्रोताओं की पहली
और अंतिम कतार को

ऐतिहासिक होने का उद्यम
श्रीमान होने के करतब का
सबसे खतरनाक पक्ष है
समय की धूल पोंछकर
हाथ गंदा करने का जमाना लद गया
अब तो समय को सबसे क्रूरता से
बांचने वालों की सुनवाई है

कलम ने कुदाल की तौहीनी
भले न की हो
पर खुद को मटमैला होने से
भरसक बचाया है
हम जिन बातों पर रो सकते थे
सिर फोड़ सकते थे आपस में
कैसा तिलस्मी असर है इनका
कि हम बेवजह हंस रहे हैं
रो रहे हैं
जबकि हमें भी मालूम है
कि हम पूर्वजन्म से लेकर
पुनर्जन्म तक जागे ही नहीं
बस सो रहे हैं

मंचासीन जादूगरों के डमरू पर
डम-डम-डिगा-डिगा गाने वाले
जादू का खेल देखकर ताली बजाने वाले
अब मजमे में शामिल तमाशबीन नहीं
एक पागल भीड़ है
जो घर-घर पहुंच चुकी है
अगर न बने हम भीड़
तो भीरु कहलाएंगे
और अगर हो गए भीड़ तो
मारे जाएंगे

Friday, July 8, 2011

बार्बी


रंगों को बरमुडा की तरह पहन फिरने वाली 
बादलों को पतंगों की तरह आसमान में टांकने वाली 
मौसम को छतरी की तरह ताने
 जयपुरिया रेत से मुंहजोड़ी करने वाली 
जिंदगी को ऐश्वर्या राय का लार्जर कट आउट कहने वाली 
पकड़ को आइसक्रीम और रगड़ को पास्ता जैसा चखने वाली 
सख्त बर्फीले चट्टान पर निर्वस्त्र कंदील की तरह जलने वाली 
आंखों की लाल डोरी से खिंचे झुले में 
बदहवास हिंडोले भरने वाली 
बर्बर बार्बियों ने ट्रेजडी का नया आख्यान लिखा है 
रात के तकिए पर सबसे तेज शराब का नाम लिखा है
 दुनिया को कायर... खुद को महान लिखा है... 

Thursday, July 7, 2011

परपुरुष


कल जब तुम्हारी शर्ट की कालर पर
जमी देखी कीचट मैल तो मिचलाने लगा मन
लड़खड़ाते देखा किसी अव्वल बेवरे की तरह
तो घबड़ाने लगा मन
प्रेम मैं करती थी तुम्हीं से
किया था खुद से ही वरण तुम्हारा
पर फैसला यह शरमाने लगा
तुम्हारे नाम का पल्लू ओढ़ूं आजीवन
जीवन ऐसा गंवारा नहीं लगा
मेरी कोख से होगा पुनर्जन्म तुम्हारा
सोचकर दरकने लगी मेरे अस्तित्व की धरती
भर-भराकर कर गिरने लगा
सिंदूरी सपनों का आसमान

तुम्हारी गोद में ही ली मैंने
किसी परपुरुष के सपने का सुख पहला
देहगंध का संसर्ग बदलने की हिमाकत
विद्रोह की तरह था मेरे लिए
तुम्हारे साथ रखकर ही शुरू कर दी मैंने
किसी और के होने की प्रार्थना
मांगने लगी मनौती छुटकारे की
देह का धधकता दाह
जला दे रही था वह सब
जो तुम्हारे नाम से दौड़ा था कभी नसों में मेरी

बचाने की कोशिश तो की भरसक तुमने
संबंध की अनजाने ही ढीली पड़ती गांठ को
पर जतन के हर पासे को पलटता देख
खोने लगे संतुलन
पटकने लगे थाली
बरबराने लगे गाली
जिन बालों पर फेरकर हाथ तुमने दिया था कभी
अनंत प्यार का भरोसा
वह मेरी मुंहजोर बेवफाई का
बना पहला शिकार
नोचे बेरहमी से तुमने बाल मेरे
कभी पागल कर देने वाली गोलाई पर
टूटा तुम्हारे हाथ से रेत की तरह सरकते जाते
प्यार का भिंचभिंचाता गुस्सा

इस झंझावात का सामना करना
भले दुश्वार था मेरे लिए
बिलख उठती थी मैं
तुमसे बार-बार दागे जाने के बाद
पर यही तो था वह जंगल
जिसे चाहती थी मैं पहले उगाना
और बाद में खुद उसमें फंसना
फिर कर लेना चाहती थी इसे जैसे-तैसे पार

तुम नहीं मेरे प्यार
कर नहीं सकते तुम मुझे प्यार
इस सच को सधा होना ही नहीं
अंतिम होना भी जरूरी था
प्यार के रेशमी रिश्ते के टूटने का
लौह तर्क आखिरकार जीत गया
देखते-देखते ही देखते
तुम और तुम्हारा साथ बीत गया
और इस तरह एक दिन फूंक दिया मैंने
तुमसे मुक्ति का महामंत्र

तुम्हारे साथ होने की ठिठुरन
जिस रजाई को ओढ़कर करती रही दूर
जिसके सपनों के तकिए पर काढ़ती रही
सपनों के फूल
तुम्हें खोने का सुख
जिसके पास होकर देता रहा
गहरी लंबी सांस जैसा सुकून
प्यार वह सहारा जैसा था
सहारा वह भूख जैसी थी
भूख वह देह जैसी थी
और देह वह जलाता रहा
मेरी बिंदास चेतना का अलख
भरमाई आंखों से पूजती रही मैं
दीर्घ और विद्रोही इच्छाओं का महाकलश

सेल नंबर तुम्हारा


बदल गया है कितना कुछ
इस बीच
तब का देखा
देख रहा हूं आज
कितने सालों बाद
बदल गई हो कितनी तुम

नहीं लगती बिल्कुल पहले जैसी
न हैं आदतें वैसी
न बोलने-बतियाने का अंदाज वैसा
सपनों से मुंह चुराती अपनों से रीती बातें
गहनों कपड़ों रंगों को लेकर नजरिया
बालों को बांधने-खोलने के सलीके
कितने बदल गये हैं इस बीच

पर शायद सब कुछ इतना
बदल नहीं पाता
बदल न पाते हालात इतने
बदला न होता इस बीच
अगर सेल नंबर तुम्हारा

Tuesday, July 5, 2011

अवैध संबंध


संबंधों के क्रूरतम संकट के दौर में
सबसे बड़ा असंवैधानिक अनुबंध है
अवैध संबंध 

संविधान की प्रस्तावना
जिस देशकाल को रचने का
जताती है भरोसा
जिसके प्रति जतानी होती है
सबसे ज्यादा निष्ठा
उसके धुर्रे बिखेरकर
तैयार हो रहा है
रिश्तों का मन माफिक जंगल
घुप्प अंधेरे जैसा पसरा
अवैध समाज

अवैध संबंध
जिसकी व्याख्या न तो
अरस्तु के पुरखों
और न उनकी सीढ़ियों पर बैठी
संतानों ने की
पर रहे तो हैं ये तब भी
जब मर्यादा के सार्वकालिक
सुलेख रचे गए
महलों में बने हरम
कर्मकांडों की हांडी में
पकने वाला धरम
इतना नरम तो कभी नहीं रहा
कि उसकी गरमाहट
घर के दायरे में कैद हो
और किसी लक्ष्मण रेखा से
पहले तक ही वैध हो
इनके पुचकार और  प्रसार के
अगनित पड़ाव
महज मानवीय इतिहास नहीं
बल्कि उसे सिरहाने सुलाने वाले
मनुष्य की आंख-कान हैं

संवेदना, इच्छा और प्रेम की
गोपनीय संहिता की आपराधिक धाराएं
दिमाग से टपकती हैं
पर मन की भट्टी उड़ा देती है
इन्हें भाप बनाकर
भूला देती है सभ्यता का शाप मानकर
पुण्य की सियाही से लिखा पाप मानकर

अब भी जिन आंखों को चुभती हैं ये
अखरती हैं बिछावन में चुभे आलपीन की तरह
उन्हें बटन की तरह खुली
अपनी आंखों पर नहीं
उन पंखों पर
भरोसा करना चाहिए
जिनको खोलने की आदिम इच्छा
मरती तो कभी नहीं
हां, आत्महत्या जरूर कर लेती है कई बार
सिहरन से भी तेज उगने वाले डर से
कानून की काली नजर से