Tuesday, July 5, 2011

अवैध संबंध


संबंधों के क्रूरतम संकट के दौर में
सबसे बड़ा असंवैधानिक अनुबंध है
अवैध संबंध 

संविधान की प्रस्तावना
जिस देशकाल को रचने का
जताती है भरोसा
जिसके प्रति जतानी होती है
सबसे ज्यादा निष्ठा
उसके धुर्रे बिखेरकर
तैयार हो रहा है
रिश्तों का मन माफिक जंगल
घुप्प अंधेरे जैसा पसरा
अवैध समाज

अवैध संबंध
जिसकी व्याख्या न तो
अरस्तु के पुरखों
और न उनकी सीढ़ियों पर बैठी
संतानों ने की
पर रहे तो हैं ये तब भी
जब मर्यादा के सार्वकालिक
सुलेख रचे गए
महलों में बने हरम
कर्मकांडों की हांडी में
पकने वाला धरम
इतना नरम तो कभी नहीं रहा
कि उसकी गरमाहट
घर के दायरे में कैद हो
और किसी लक्ष्मण रेखा से
पहले तक ही वैध हो
इनके पुचकार और  प्रसार के
अगनित पड़ाव
महज मानवीय इतिहास नहीं
बल्कि उसे सिरहाने सुलाने वाले
मनुष्य की आंख-कान हैं

संवेदना, इच्छा और प्रेम की
गोपनीय संहिता की आपराधिक धाराएं
दिमाग से टपकती हैं
पर मन की भट्टी उड़ा देती है
इन्हें भाप बनाकर
भूला देती है सभ्यता का शाप मानकर
पुण्य की सियाही से लिखा पाप मानकर

अब भी जिन आंखों को चुभती हैं ये
अखरती हैं बिछावन में चुभे आलपीन की तरह
उन्हें बटन की तरह खुली
अपनी आंखों पर नहीं
उन पंखों पर
भरोसा करना चाहिए
जिनको खोलने की आदिम इच्छा
मरती तो कभी नहीं
हां, आत्महत्या जरूर कर लेती है कई बार
सिहरन से भी तेज उगने वाले डर से
कानून की काली नजर से

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