Sunday, September 25, 2011

बस अड्डे पर लावारिस मुस्कान


बुझी नहीं है  आग न झुका है  आसमान
तमगे हम लाख पहनें
या कि  पा लें पेशेवर रहमदिली का
सबसे बड़ा इनाम

पत्थर में धड़कन की तरह
सख्त सन्नाटे को दरकाती  आवाज
समय ने भी कर दिया इनकार
जिस सुनने से
कविता की ये पंक्तियां चुराई हैं मैंने भी
खासी बेशर्मी से
उस बच्चे की बेपरवाह आँखों से

सोचता हूं  अब भी
गूंज नहीं रहा होगा क्या
युद्घ का वह  अंतिम बिगुल 
इतिहास की बेमतलब जारी
बांझ-लहूलुहान थकान के खिलाफ
वह  अंतिम तीर वह  अंतिम तान
बस  अड्डे पर मिली
लावारिस मुस्कान
पांच रुपये में  आठ समान
पांच रुपये में  आठ समान

Tuesday, September 13, 2011

निवेश युग के व्यस्त चौराहे पर


कॉलोनी का सातवां 
और उसके आहाते का  
आखिरी पेड़ था
जमा कर आया जिसे वह
अजन्मे पत्तों के साथ बैंक में
इससे पहले
बेसन मलती बरामदे की धूप
आलते के पांव नाचती सुबह
बजती रंगोलियां
रहन रखकर खरीदा था उसने
हुंडरु का वाटरफॉल

निवेश युग के सबसे व्यस्त चौराहे पर
गूंजेंगी जब उसके नाम की किलकारी
समय के सबसे खनकते बोल
थर-थराएंगे जब
पुश्तैनी पतलून का जिप चढ़ाते हुए
खड़ी होगी जब नयी सीढ़ी
पुरानी छत से छूने आसमान
तब होगी उसके हाथों में
दुनिया के सबसे महकते
फूलों की नाममाला
फलों की वंशावली
पेड़ों के कंधों पर झूलता
भरत का नाट्यशास्त्र

बांचेगा वह कानों को छूकर
सन्न से गुजर जाने वाली
हवाओं के रोमांचक यात्रा अनुभव
आंखों के चरने के लिए होगा
एक भरा-पूरा एलबम
तितलियों के इशारों पर
डोलते-गाते मंजर
मिट्टी सोखती
पानी की आवाज बजेगी
उसके फोन के जागरण के साथ

पर वे पेड़
जहां झूलते हैं उसके सपने
वे आम-अमरूद और जामुन
चखती जिसे तोतों की पहली मौसमी पांत
वह आकाश
जहां पढ़ती हैं अंगुलियां अपने प्यार का नाम
वह छाया
जिसे बगीचे चुराते धूप से
वह धूल
जहां सनती गात बांके मुरारी की
कहां होंगे

किन पन्नों पर होगी
इनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट
हारमोनियम से बजते रोम-रोम
किस बारहमासे से बांधेंगे युगलबंदी   
आएंगे पाहुन कल भोर भिनसारे
कौवे किस मुंडेर पर गाएंगे
हमें देखकर कौन रोएगा
हम किसे देखकर गाएंगे

Thursday, September 1, 2011

सदी की अंतिम कविता


सदी के आखिर में बंधते
लाखों-करोड़ों असबाबों के बीच
छूट गयी है वह
किसी पोंगी मान्यता की तरह
नहीं लेना चाहता कोई अपने साथ
नहीं चाहता होना कोई
नयी सदी में उसके पास

आने-जाने वाले हर रास्ते पर
चलते-फिरते हर शख्स को
जागो और चल पड़ो की
अहद दे रही हैं नयी रफ्तारें
सांझ के दीये की तरह कंपती-बलती
कर रही है इंतजार
अब भी वह किसी के लौटने का

इस सदी के सबसे उदास दोपहर में
मैं पहुंचना चाहता हूं उसके पास
अभी-अभी छोड़ आई है
उलटा निशान तीर का जो
उस चौराहे पर
शोर जहां सबसे ज्यादा है
भीड़ है 
रेंगती हैं अफवाहें
तरह-तरह की सांपों की तरह
सदी का सबसे बूढ़ा आदमी
वहां गुजरते समय के
आखिरी दरवाजे पर बैठा है
चमार के पेशे के साथ
पूरी आस्था और
जन्मजात सेवा शपथ की अंटी बांधे
चलते-फिरते धूल उड़ाते
चप्पल-जूतों की चरमराहट दुरुस्त करने
इस तारीखी मंजर के सामने
रुंधे गले की नि:शब्दता पूरी होती है
छलछला आये आंसूओं से
लिखता हूं पंक्ति अंतिम
सदी की अंतिम कविता की
यह इस सदी का अंतिम फ्लैश है