Sunday, April 22, 2012

कौन ठगवा नगरिया लूटल हो...!


आंखों से काजल चुराने वाले सियाने भले अब पुरानी कहानियों, कविताई  और मुहावरों में ही मिलें पर ग्लोबल दौर की चोरी और चोर भी कम नहीं है। दरअसल, चोरी एक ऐसी कर्म है जिसका इस्तेमाल विचार से लेकर संस्कार तक हर क्षेत्र में होता रहा है। जाहिर है जिस परंपरा का विस्तार और प्रसार इतने व्यापक हों उसके डाइमेंशन भी एक-दो नहीं बल्कि अनगिनत होंगे। नए दौर में चोरी को लेकर एक फर्क  यह जरूर आया है कि अब चोरी अपनी परंपरा से विलग कर एक आधुनिक और ग्लोबल कार्रवाई हो गया है। इस फर्क ने चोरी के नए और बदलावकारी आयामों को हमारे सामने खोला है।
अब इस काम को करने के लिए किसी तरह के शातिराना तर्जुबे की दरकार नहीं बल्कि इसे ढोल-धमाल के साथ उत्सवी रूप में किया जा रहा है। जाहिर है कि चोरी अब सभ्य नागरिक समाज के लिए कोई खारिज कर्म नहीं रह गया है और न ही इसका संबंध अब धन-संपदा पर हाथ साफ करने से रह गया है। स्वीकार और प्रसार के असंख्य हाथ अब एक साथ चोर-चोर चिल्ला रहे हैं पर खौफ से नहीं बल्कि खुशी-खुशी।  
बात ज्यादा दूर की नहीं बल्कि अपने ही देश और उसके सबसे ज्यादा बोली जाने वाली बोली-भाषा की की जाए तो ग्लोबल चोरी सर्ग में इसके कई शब्द देखते-देखते अपने अर्थ को छोड़ अनर्थ के संग हो लिए। अपने यहां बोलचाल और पढ़ाई-लिखाई में हम हिंदी का तो इस्तेमाल करते ही हैं अंग्रेजी का भी जोर तेजी से बढ़ा है। एक खिचड़ी भाषा मोबाइल इंटरनेट की देसी भाषा बनकर इस दौरान उभरी है जिसे हिंग्रेजी कहा जा रहा है।
अब जरा इन शब्दों की नई बनती दुनिया को देखें। 'उदार' शब्द हाल तक मानवता के श्रेष्ठ गुण के लिए किया जाता रहा है। ईश्वर और ईश्वर तुल्यों के लिए जिस गुण विशेष का आज तक इस्तेमाल होता रहा, वह शब्द हमारे देखते-देखते समय और परंपरा के सबसे संवेदनहीन दौर के लिए समर्पित कर दिया गया। दिलचस्प है कि 'उदारवाद' के विरोधी भले विकास के नाम पर बाजार की चालाकी और उपभोक्ता क्रांति के नाम पर चरम भोग की प्रवृत्ति को मुद्दा बनाएं, पर विरोध के उनके एजेंडे में भी इस तरह की चोरी शामिल नहीं है। 
दरअसल, शब्दों का भी अपना लोकतंत्र होता है और यह लोकतंत्र किसी भी राजकीय या शासकीय लोकतंत्र के मॉड्यूल से ज्यादा लोकतांत्रिक है। शब्दों की दुनिया में वर्चस्व या एकाधिकार की गुंजाइश नहीं। परंपरा और व्यवहार का समर्थन या विरोध ही यह तय करता है कि कौन सा शब्द चलेगा और कौन नहीं। शब्द हमारी अभिव्यक्ति के साथ-साथ हमारी संस्कृति, हमारे इतिहास, हमारी परंपरा और हमारे समाज से गहरे जुड़े हैं। शब्दों का अध्ययन हमारे चित्त, मानस और काल के कलर और कलई की सचाई को सबसे बारीकी से पकड़ सकता है।
न्यू क्रिटिसिज्म में शब्दों को 'टेक्स्ट' की तरह देखने की दरकार रखी गई हैं। यानी शब्दों की यात्रा अर्थ तक जाकर समाप्त नहीं हो जाती बल्कि समय और संदर्भ के तमाम हवालों को वह अपने से जोड़ता है। पर दुर्भाग्य से शब्दों की हमारी दुनिया आज उन चोरों के हाथों चली गई है, जिनकी हैसियत कस्बाई या क्षेत्रीय नहीं बल्कि ग्लोबल है। ग्लोबल चोरी को मान्यता सरकारों ने तो दी ही है, हमारा समय और समाज भी इस तरह की चोरी पर खामोश तो क्या उसका हिमायती बन गया है।

No comments:

Post a Comment