दुविधा का समंदर
जिसे पाया नहीं
खोना उसका भी
कचोट देता है
जिसे गाया नहीं
उतरना उसका अधरों से
मन मसोस देता है
दोपहर सा मन
हर तरलता
सोख लेता है
दुविधा का समंदर
मांझी को हर बार
टोक देता है
सोच की
दुबली रेखा जो
अकेली ही गुजरती है
अकेले होने का खतरा
अच्छे-अच्छों को
दबोच लेता है
11.09.18
No comments:
Post a Comment